यकृत के विक्षत कोष हुए
अवशीत हुआ जठरानल भी
प्रिय आकर मेरे मुख में मधुरस
टपकाता...मैं जी जाता
जो इस व्याबाध का कारक है
सो ही के कर उपचारक है
करदक्ष वो छूकर प्राण अंगो में
भर जाता...मैं जी जाता
नभ निष्ठुर ने आह्लाद किया
मूक दर्शक बन अभिताप दिया
परितप्त मेरे तन पर थोडा जल
बरसाता...मैं जी जाता
करने तुमको विस्मृत प्रिये
भटका हुँ मधु से प्रीत किये
कोई बिध नयनों से तुम आनन
बिसराता...मैं जी जाता
शत मोह भरे मन मण्डल से
शत पीर भरे तन पिंजर का,
अविरत अविनय उपभोग समय पर
रुक पाता...मैं जी जाता
प्रति पल है शिथिलता की ग्लानि
चुभ नित्य रही अपरिध हानि
सखी कर तेरे मुझ कर में निरंतर
रख पाता...मैं जी जाता
जैसे तटिनी सागर से मिले
कण रसपाकज के पय में घुले
मुझसे रच ऐसा स्थायी समन्वय
प्रिय आता...मैं जी जाता
प्रिय आता...मैं जी जाता
शैशव घट से मन को भाता, प्रिय आता
सुख की मंजूषा छलकाता , प्रिय आता
शशि किरणों सी देने शाता, प्रिय आता
निस्सौरभ वन को महकाता, प्रिय आता
प्रिय आता...मैं जी जाता
Had my beloved come in my life,
i would have lived longer.....
( I have posted this poetry at www.songsofyore.com in the comment section of the post "jigar" on 3/9/15 with my original name.
I have created this poetry inspired by Harivansh Rai Bachchan's "koi gaata main so jaata" (Aalap, 1977). Adopted only the format of that song and not taken any line from it.)
wordings are too.....gud...i have no words to say what a wonderful creation it is.....
ReplyDeletethanks mam
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